शिवलिंग की उत्पत्ति | Shivling Ki Utpatti : Shiv Puran

पहले हमने देखा कि चंचला की भक्ति से उसके पति बिंदु को पिशाच योनि से मुक्त कराने के लिए शिव पुराण की कथा सुनाई और उसे शिवधाम पहुंचाया। आज की कथा में, हम जानेंगे कि भगवान शिव को लिंग और मूर्ति, दोनों रूपों में क्यों पूजा जाता है और इसका क्या महत्व है।

जब चंचला और बिंदु की कथा समाप्त हुई, तो महारिषि सूत जी के पास बैठे एक जिज्ञासु ने पूछा, “हे ब्राह्मण! जब अन्य देवताओं की पूजा केवल मूर्तियों के माध्यम से की जाती है, तो भगवान शिव की पूजा लिंग और मूर्ति, दोनों रूपों में क्यों होती है?”

सूत जी ने कहा, “यह प्रश्न प्राचीन समय में ब्रह्मा जी के मानस पुत्र सनत कुमारों ने नंदीश्वर से पूछा था। तब नंदीश्वर ने जो उत्तर दिया, वह मैं आपको सुनाता हूं।”

यह घटना उस समय की है, जब सनत कुमारों ने नंदीश्वर से प्रश्न किया। उन्होंने कहा, हे नंदीश्वर, कृपया हमें यह बताइए कि भगवान शिव को अन्य देवी-देवताओं की तरह केवल मूर्ति रूप में क्यों नहीं पूजा जाता? उन्हें लिंग और मूर्ति दोनों रूपों में क्यों पूजा जाता है?

नंदीश्वर ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया, “यह प्रश्न अत्यंत गूढ़ और रहस्यमय है। इसका उत्तर केवल वही दे सकता है, जिसने भगवान शिव की कृपा पाई हो। परंतु चूंकि आप शिवभक्त हैं, मैं आपको इस प्रश्न का उत्तर दूंगा।”

नंदीश्वर ने कहा: भगवान शिव साकार और निराकार, दोनों रूपों में विद्यमान हैं। शिवलिंग उनके निराकार स्वरूप का प्रतीक है, जबकि मूर्ति उनके साकार स्वरूप का। अन्य देवता केवल साकार रूप में पूजनीय हैं, परंतु भगवान शिव ब्रह्म के प्रतीक हैं और इसलिए दोनों रूपों में पूजनीय हैं।

सनत कुमारों ने नंदीश्वर के ज्ञान से संतोष किया और शिवलिंग की पूजा आरंभ कर दी।

जब सनत कुमारों ने शिवलिंग की पूजा समाप्त की, तो उनके मन में एक और प्रश्न उत्पन्न हुआ। उन्होंने नंदीश्वर से पूछा: हे नंदीश्वर, यह बताएं कि शिवलिंग की उत्पत्ति कैसे हुई? इसका प्रकट होना किस प्रकार हुआ?

नंदीश्वर ने मुस्कुराते हुए कहा: यह कथा अत्यंत प्राचीन और गूढ़ है। यह उस समय की बात है जब ब्रह्मा और विष्णु के बीच श्रेष्ठता को लेकर विवाद हुआ था।

एक दिन ब्रह्मा जी, जो सृष्टि के रचयिता हैं, भगवान विष्णु के पास पहुंचे। उस समय विष्णु जी शेषनाग की शैय्या पर विश्राम कर रहे थे। जब ब्रह्मा जी ने उन्हें सोते हुए देखा, तो उनके मन में असंतोष उत्पन्न हुआ।

उन्होंने सोचा, “मैं सृष्टि का रचयिता हूं। यह मेरा उचित सम्मान नहीं है कि भगवान विष्णु मुझे नजरअंदाज कर सो रहे हैं।”

जब भगवान विष्णु जागे, तो ब्रह्मा जी ने नाराज होकर कहा, “हे विष्णु, तुमने मेरा उचित आदर नहीं किया। मैं सृष्टि का रचयिता हूं, और तुमने मेरा अपमान किया है।”

विष्णु जी शांत स्वर में बोले, “हे ब्रह्मा, आप रचयिता हैं, परंतु मैं पालनकर्ता हूं। सृष्टि का संतुलन मेरे बिना संभव नहीं है। इसलिए मैं अधिक महत्वपूर्ण हूं।”

यह सुनकर ब्रह्मा जी और अधिक क्रोधित हो गए। उन्होंने कहा, “मैं ही सृष्टि का मूल हूं। तुम्हारा यह दावा निराधार है।”

इसके बाद दोनों के बीच तर्क-वितर्क शुरू हुआ, और यह बहस जल्द ही एक भीषण विवाद में बदल गई।

ब्रह्मा जी और विष्णु जी ने अपनी-अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए अस्त्र-शस्त्र उठा लिए।

युद्ध इतना उग्र हो गया कि सृष्टि में असंतुलन उत्पन्न होने लगा। प्रकृति विचलित हो गई, और देवता भयभीत होकर भगवान शिव की शरण में कैलाश पर्वत पहुंचे।

देवताओं ने महादेव से प्रार्थना की, “हे महादेव, ब्रह्मा और विष्णु के बीच का यह विवाद सृष्टि के लिए विनाशकारी है। कृपया इसे समाप्त करें।”

भगवान शिव ने देवताओं की प्रार्थना सुनकर युद्ध को समाप्त करने का निश्चय किया। वह एक विशाल अग्नि स्तंभ के रूप में प्रकट हुए, जो आकाश से पाताल तक फैला हुआ था। यह अग्नि स्तंभ इतना तेजस्वी था कि ब्रह्मा और विष्णु दोनों चकित रह गए।

वहां पहुंचकर दोनों ने एक-दूसरे से कहा, “यह विशाल अग्नि स्तंभ क्या है? हमें इसके रहस्य का पता लगाना होगा।”

दोनों ने तय किया कि जो इस स्तंभ के छोर को पहले खोज लेगा, वही श्रेष्ठ होगा।

भगवान विष्णु ने वराह (सूअर) का रूप धारण किया और स्तंभ की जड़ तक पहुंचने के लिए पृथ्वी के अंदर खोदने लगे।

ब्रह्मा जी ने हंस का रूप धारण किया और स्तंभ के शिखर को खोजने के लिए ऊपर की ओर उड़ गए।

कई वर्षों तक खोजने के बाद भी विष्णु जी को स्तंभ की जड़ नहीं मिली। थककर वह वापस लौट आए और अपनी पराजय स्वीकार कर ली।

दूसरी ओर, ब्रह्मा जी को भी स्तंभ का शिखर नहीं मिला। परंतु रास्ते में उन्हें केतकी का एक फूल गिरता हुआ मिला। ब्रह्मा जी ने केतकी फूल से कहा, “तुम गवाही दो कि मैंने इस स्तंभ के शिखर को खोज लिया है।”

केतकी फूल ने झूठी गवाही दे दी। ब्रह्मा जी वापस लौटकर विष्णु जी से बोले, “मैंने स्तंभ का शिखर खोज लिया है। यह केतकी फूल इसका प्रमाण है।”

जब ब्रह्मा जी ने झूठी गवाही दी, तो भगवान शिव स्तंभ से प्रकट हुए और दोनों को संबोधित किया। उन्होंने ब्रह्मा जी से कहा, “हे ब्रह्मा, आपने झूठ का सहारा लिया है। इसलिए आपको किसी प्रकार की पूजा नहीं प्राप्त होगी।”

भगवान शिव ने केतकी फूल को भी श्राप दिया कि वह कभी पूजा में इस्तेमाल नहीं होगा।

भगवान शिव ने विष्णु जी की सत्यता और विनम्रता से प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद दिया।

भगवान शिव ने कहा, “यह अग्नि स्तंभ मेरा लिंग रूप है। इस रूप में मेरी पूजा की जाएगी। शिवलिंग को देखने, छूने और पूजने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं। जो व्यक्ति शिवलिंग की पूजा करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।”

उस दिन से शिवलिंग की पूजा का प्रचलन आरंभ हुआ।

शिक्षा: यह कथा हमें सिखाती है कि अहंकार से सृष्टि का विनाश होता है, जबकि सत्य, विनम्रता और भक्ति से मोक्ष प्राप्त होता है। भगवान शिव का लिंग रूप ब्रह्मांड के संतुलन और मोक्ष का प्रतीक है। उनकी पूजा से आत्मा शुद्ध होती है और मनुष्य अपने पापों से मुक्त होकर जीवन का परम उद्देश्य प्राप्त कर सकता है।

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