Paush Purnima Vrat Katha: पौष पूर्णिमा हिंदू धर्म में एक महत्वपूर्ण तिथि है, जो पौष मास की पूर्णिमा को मनाई जाती है। 2025 में पौष पूर्णिमा 13 जनवरी को पड़ेगी। इस दिन सूर्य देव और चंद्रमा की उपासना का विशेष महत्व है। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान, विशेषकर गंगा स्नान, करने से पापों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
स्नान के पश्चात तिल, गुड़, कंबल और ऊनी वस्त्रों का दान करना अत्यंत पुण्यदायी माना जाता है। इस दिन भगवान सत्यनारायण और माता लक्ष्मी की पूजा-अर्चना करने से घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है।
कथा का आरंभ
द्वापर युग की बात है। माता यशोदा अपने लाला श्रीकृष्ण के पास आईं और बोलीं, “कन्हैया! तुम इस संसार के सृजनकर्ता, पालनकर्ता और संहारकर्ता हो। क्या मुझे ऐसा व्रत बता सकते हो, जिसे करने से स्त्रियों को इस नश्वर संसार में विधवा होने का भय न रहे और उनके सभी मनोकामनाएँ पूरी हों?”

श्रीकृष्ण मुस्कुराए और बोले, “माता, आपने बहुत सुंदर प्रश्न किया है। मैं आपको एक ऐसे व्रत के बारे में बताता हूँ, जिसे करने से स्त्रियों को अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है। यह व्रत है 32 पूर्णिमा व्रत। इसे करने से स्त्रियों को सौभाग्य और दीर्घायु का वरदान मिलता है।” फिर श्रीकृष्ण ने इस व्रत से संबंधित एक पुरानी कथा सुनाई:
बहुत समय पहले की बात है, ‘कृतिक’ नामक नगरी में चंद्रहास नामक राजा राज्य करते थे। उसी नगरी में धनेश्वर नामक एक ब्राह्मण अपनी पत्नी रूपवती के साथ प्रेमपूर्वक रहते थे। उनके घर में धन-धान्य की कोई कमी नहीं थी, लेकिन एक दुख था—वे संतानहीन थे।
धनेश्वर और रूपवती का जीवन सुखद था, परंतु संतान की कमी उनके दिल में एक अधूरापन छोड़ जाती थी। वे प्रतिदिन भगवान की आराधना करते, फिर भी संतान का सुख उन्हें प्राप्त नहीं हो रहा था।

एक दिन एक महान योगी उस नगरी में आए। वह योगी कभी भी धनेश्वर के घर से भिक्षा नहीं लेते थे। धनेश्वर ने विनम्रतापूर्वक योगी से पूछा, “हे महात्मन! आप सब घरों से भिक्षा लेते हैं, परंतु मेरे घर से नहीं। इसका क्या कारण है?”
योगी बोले, “हे ब्राह्मण, संतानहीन घर की भिक्षा लेना पाप समान होता है। इसलिए मैं तुम्हारे घर से भिक्षा नहीं लेता।”
यह सुनकर धनेश्वर का हृदय दुःख से भर गया। वे योगी के चरणों में गिर पड़े और बोले, “महाराज, कृपा कर मुझे संतान प्राप्ति का उपाय बताइए।”
योगी बोले, “तुम देवी चंडी की उपासना करो।”

धनेश्वर ने तुरंत ही घर जाकर अपनी पत्नी से सब बातें साझा कीं और तपस्या के लिए वन चले गए। कई दिनों की कठिन तपस्या के बाद देवी चंडी ने स्वप्न में आकर कहा, “हे धनेश्वर, तुम्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी, परंतु वह 16 वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त होगा। यदि तुम और तुम्हारी पत्नी 32 पूर्णिमा व्रत का पालन करोगे, तो तुम्हारा पुत्र दीर्घायु होगा।”

अगले दिन धनेश्वर को एक विशेष आम का फल मिला। वह फल उन्होंने अपनी पत्नी रूपवती को दिया। रूपवती ने वह फल खाया और कुछ ही समय में वह गर्भवती हो गईं। समय आने पर उन्होंने एक सुंदर पुत्र को जन्म दिया, जिसका नाम देवीदास रखा गया।
समय बीतता गया। जब देवीदास की उम्र 16 वर्ष हुई, तो उसके माता-पिता को चिंता होने लगी। उन्होंने सोचा, “अगर हमारे पुत्र की मृत्यु हो गई तो हम यह दुख कैसे सहन करेंगे?”
उन्होंने अपने मामा को बुलाया और कहा, “हम चाहते हैं कि देवीदास काशी जाकर विद्या अध्ययन करे। एक वर्ष बाद उसे वापस ले आना।”
मामा ने देवीदास को घोड़े पर बिठाकर काशी के लिए रवाना किया।
काशी की यात्रा के दौरान देवीदास और उनके मामा एक गाँव में रात विश्राम के लिए रुके। संयोगवश, उसी गाँव में एक ब्राह्मण की अत्यंत सुंदर, सुशील और संस्कारी कन्या का विवाह होने वाला था। विवाह की तैयारियाँ जोरों पर थीं—मंडप सजा था, तेल चढ़ाने की रस्में पूरी हो चुकी थीं, और घर में खुशियों का माहौल था।
लेकिन अचानक एक बड़ा संकट आ गया। जैसे ही विवाह की मुख्य रस्में शुरू होने वाली थीं, उसी समय पंडित ने बताया कि अब धनुर्मास लग चुका है। हिंदू धर्म में धनुर्मास को शुभ कार्यों के लिए वर्जित माना जाता है, और इस दौरान विवाह नहीं किया जाता।
यह सुनकर वर पक्ष घबरा गया। दूल्हे के पिता बहुत चिंतित हो उठे कि अब क्या किया जाए। विवाह की सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं, बारात आ चुकी थी, लेकिन अब विवाह नहीं हो सकता था।
दूल्हे के पिता ने अपने परिवारजनों और रिश्तेदारों को बुलाया और चिंतित स्वर में बोले,
“अब क्या करें? अगर विवाह रोक दिया गया तो समाज में हमारी बहुत बदनामी होगी। कन्या पक्ष का अपमान होगा और लोग हमें दोषी ठहराएंगे। कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे यह विवाह संपन्न हो सके।”
तभी उनकी नजर देवीदास पर पड़ी, जो अपने मामा के साथ उसी धर्मशाला में ठहरे हुए थे। देवीदास का तेजस्वी और सुंदर चेहरा देखकर दूल्हे के पिता ने सोचा, “यह युवक तो मेरे बेटे जैसा ही लगता है। क्यों न इसी से कन्या का विवाह करवा दूँ? विवाह की रस्में पूरी हो जाएँगी और समाज में हमारी इज्जत भी बनी रहेगी। बाद में मुख्य रस्में मेरे बेटे के साथ हो जाएँगी।”
यह सोचकर दूल्हे के पिता तुरंत देवीदास के मामा के पास गए और बोले, “महाराज, मेरी एक विनती है। विवाह की रस्में पूरी होने वाली थीं, लेकिन धनुर्मास लग जाने के कारण अब विवाह नहीं हो सकता। यदि आप कुछ समय के लिए अपने भांजे को हमारे साथ विवाह की रस्मों में शामिल होने की अनुमति दे दें, तो हमारी इज्जत बच जाएगी। बाद में हम सभी रस्में हमारे बेटे के साथ पूरी कर लेंगे।”
देवीदास के मामा ने सोचा कि अगर कन्या पक्ष से उचित दक्षिणा मिले तो इसमें कोई हर्ज नहीं है। उन्होंने कहा,
“जो भी कन्यादान के समय वर को मधुपर्क, वस्त्र और आभूषण दिए जाते हैं, यदि वे सब हमें दे दिए जाएँ, तो मेरा भांजा इस विवाह में दूल्हा बनने के लिए तैयार है।”

दूल्हे के पिता ने यह शर्त स्वीकार कर ली और तुरंत ही देवीदास को दूल्हा बना दिया गया। विवाह की रस्में विधिपूर्वक संपन्न हुईं। कन्या के हाथ में मेंहदी लगी थी, उसके गहने चमक रहे थे, और विवाह मंडप में वेद मंत्रों की गूंज थी।
देवीदास ने चुपचाप सभी रस्में निभाई और विवाह के बाद अपनी पत्नी को एक रुमाल और मल्लिका के फूल दिए और कहा, “प्रिय! यह रुमाल और फूल संभालकर रखना। यदि ये मुरझा जाएँ तो समझना कि मैं संकट में हूँ और यदि ये फिर से हरे हो जाएँ तो समझना कि मैं सुरक्षित हूँ।”
कन्या ने देवीदास को ही अपना सच्चा पति मान लिया। रात के समय, जब वे दोनों साथ भोजन कर रहे थे, तब देवीदास मन ही मन सोचने लगे, “मैं इस कन्या का असली पति नहीं हूँ, यह धोखा है।”
उनकी आँखों में आँसू आ गए। यह देखकर कन्या ने पूछा, “स्वामी! आप इतने उदास क्यों हैं? क्या कोई बात आपको परेशान कर रही है?”
देवीदास ने सारा सच बताया—कैसे धनुर्मास के कारण, उसके मामा ने यह निर्णय लिया और विवाह संपन्न कराया।
कन्या मुस्कुराई और बोली, “हे स्वामी! यह विवाह अग्नि और ब्राह्मण के सामने संपन्न हुआ है। मैंने आपको अपना पति मान लिया है। अब आप ही मेरे जीवनसाथी हैं और मैं आपकी पत्नी। चाहे जो भी हो, मैं किसी और की नहीं हो सकती।”
देवीदास ने समझाया, “मैं बहुत छोटा हूँ, मेरी आयु कम है। मेरी मृत्यु का समय निकट है। तुम क्यों मेरा साथ चाहती हो?”
लेकिन कन्या ने दृढ़ता से कहा, “आपका भाग्य ही मेरा भाग्य है। मैं आपके साथ हर परिस्थिति में रहूँगी।”
देवीदास जब अपनी पत्नी से विदा लेकर आगे बढ़े, तो समय बीतता गया। अगली सुबह गाँव में विवाह की तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं। गाजे-बाजे बज रहे थे, मंडप सजा था, और बारात के लोग विधि-विधान के अनुसार विवाह की रस्में पूरी करने के लिए एकत्र हो गए थे।
लेकिन तभी कन्या ने वर को देखकर अपने पिता से कहा, “पिताजी! यह मेरा पति नहीं है। मेरा असली पति वही है, जिसके साथ रात में मेरा पाणिग्रहण हुआ था। अगर यह वही व्यक्ति है, तो यह मुझे बताए कि मैंने कन्यादान के समय उसे कौन से भूषण (आभूषण) दिए थे और वह कौन-सी गुप्त बातें थीं, जो मैंने उससे कही थीं।”
कन्या के पिता ने उसके कहने पर वर पक्ष को बुलवाया। लेकिन जब उस व्यक्ति से सवाल पूछा गया तो वह चुप हो गया और बोला, “मैं कुछ नहीं जानता।” यह सुनकर वह लज्जित होकर वहाँ से चला गया। बारात भी अपमानित होकर लौट गई।

उधर, काशी में पढ़ाई कर रहे देवीदास पर काल ने आक्रमण कर दिया। एक भयानक विषधर (सांप) ने उसे डसने की कोशिश की, लेकिन उसकी माता द्वारा किए गए 32 पूर्णिमा व्रत के प्रभाव से वह सांप उसे काट नहीं पाया।
इसके बाद स्वयं काल ने आकर उसके प्राण लेने की कोशिश की, जिससे देवीदास मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।

उसी समय भगवान शिव और माता पार्वती वहाँ प्रकट हुए। माता पार्वती ने भगवान शिव से कहा, “हे प्रभु! इस बालक की माता ने 32 पूर्णिमा व्रत किया है। कृपा कर इसे जीवनदान दीजिए।”
भगवान शिव ने पार्वती जी के अनुरोध पर देवीदास को प्राणदान दिया। व्रत के प्रभाव से काल भी पीछे हट गया और देवीदास स्वस्थ होकर उठ खड़े हुए।
जब देवीदास के मामा के साथ काशी से लौटने की खबर उसके ससुराल पहुँची, तो उसके ससुर देवीदास को खोजने के लिए निकलने ही वाले थे। उसी समय देवीदास और उसके मामा वहाँ पहुँच गए।
उन्हें देखकर कन्या के पिता बहुत प्रसन्न हुए और पूरे गाँव में खुशी की लहर दौड़ गई। गाँव के लोग इकट्ठा हुए और सभी ने यह निर्णय लिया कि यही युवक कन्या का असली पति है।
कन्या ने देवीदास को पहचान लिया और बोली, “यही वही हैं, जिन्होंने मुझे संकेत देकर कहा था।”
गाँव वालों ने खुशी मनाई। कुछ दिन बाद देवीदास ने अपनी पत्नी और मामा के साथ अपने ससुराल से विदा ली और अपने घर लौट गए।
जब देवीदास अपने गाँव पहुँचे, तो गाँव के लोगों ने उनके माता-पिता धनेश्वर और रूपवती को बताया,
“आपका बेटा अपनी पत्नी और मामा के साथ लौट रहा है।”
पहले तो माता-पिता को विश्वास नहीं हुआ, लेकिन जब कई लोगों ने आकर यही बात कही, तो वे अचंभित रह गए।
कुछ देर बाद देवीदास ने आकर अपने माता-पिता के चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम किया। उसकी पत्नी ने भी अपने सास-ससुर के चरण छुए। माता-पिता ने देवीदास और उसकी पत्नी को हृदय से लगा लिया और दोनों की आँखों में प्रेमाश्रु भर आए।
धनेश्वर ने पुत्र और पुत्रवधू के आगमन पर भव्य उत्सव का आयोजन किया। उन्होंने ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा दी और पूरे गाँव में आनंद का माहौल फैल गया।
भगवान श्रीकृष्ण ने माता यशोदा से कहा, “हे माता! इस प्रकार 32 पूर्णिमा व्रत के प्रभाव से धनेश्वर को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई और उसका जीवन संकट से बच गया। जो भी स्त्रियाँ इस व्रत का पालन करती हैं, वे जन्म-जन्मांतर तक सौभाग्यवती रहती हैं और किसी प्रकार का दुख नहीं सहतीं।”
शिक्षा: श्रद्धा, भक्ति और व्रत से जीवन की कठिनाइयाँ दूर होती हैं। ईश्वर की कृपा से सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।