Saphala Ekadashi Vrat Katha: सफ़ला एकादशी भगवान श्री हरि विष्णु को समर्पित है। इस दिन भक्त उपवास रखते हैं, भगवान विष्णु की पूजा करते हैं और रात्रि जागरण कर भजन-कीर्तन करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इस व्रत का पुण्य हजारों वर्षों की तपस्या से भी अधिक फलदायी होता है। एक बार राजा युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा, “हे माधव! पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का क्या नाम है? इसका क्या महत्व है और इसे करने की विधि क्या है?”
भगवान श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, “हे युधिष्ठिर! पौष मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को सफ़ला एकादशी कहा जाता है। इस दिन भगवान नारायण की विशेष पूजा करनी चाहिए। यह एकादशी सभी व्रतों में श्रेष्ठ मानी जाती है। इस दिन दीपदान करना और रात्रि जागरण का विशेष महत्व है। इस व्रत को करने वाला व्यक्ति अपने समस्त पापों से मुक्त हो जाता है और उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।”
अब मैं तुम्हें सफ़ला एकादशी की एक पौराणिक कथा सुनाता हूं। ध्यानपूर्वक सुनो।
बहुत समय पहले, चंपावती नगरी में राजा महिष्म का शासन था। राजा महिष्म न्यायप्रिय, धर्मपरायण और अपनी प्रजा का भला करने वाले शासक थे। उनके पांच पुत्र थे, लेकिन उनके सबसे बड़े पुत्र का नाम लुंक था। लुंक का स्वभाव बाकी भाइयों से बिल्कुल अलग था। वह अधर्मी, आलसी, जुआरी और शराबी था। वह परस्त्रियों का सम्मान नहीं करता था और राज्य के धन को व्यर्थ के कामों में लुटा देता था।
राजा महिष्म ने कई बार अपने पुत्र को समझाने का प्रयास किया, लेकिन लुंक पर किसी बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह वैष्णवों और देवताओं का अपमान करता और अपने जीवन को बर्बाद कर रहा था। अंततः, राजा महिष्म ने अपने दरबार में घोषणा की, “लुंक को अब इस राज्य में रहने का कोई अधिकार नहीं है। वह अब से राज्य से निष्कासित किया जाता है।”
निराश और अपमानित होकर लुंक राज्य से बाहर निकल गया। जंगलों में भटकते हुए उसने चोरी और डकैती को अपना जीवन बना लिया। वह रातों को नगरों में चोरी करता और दिन में जंगलों में छिप जाता। उसका आश्रय एक प्राचीन पीपल के वृक्ष के नीचे था, जो देवताओं का एक पवित्र स्थान माना जाता था।
पौष मास की सफ़ला एकादशी का दिन आया। संयोग से उस दिन लुंक को कुछ खाने को नहीं मिला। ठंड इतनी भयानक थी कि उसका शरीर कांप रहा था। वह भूखा-प्यासा पीपल के वृक्ष के नीचे बैठा रहा। वह पूरी रात ठंड और भूख से तड़पता रहा। उसे न नींद आई, न आराम मिला।
रात के अंधेरे में, जब ठंडी हवा उसके शरीर को चीर रही थी, तब उसके हृदय में पहली बार पश्चाताप का भाव जागा। उसने आसमान की ओर देखा और कहा, “हे प्रभु! यदि आप सच में इस संसार के रक्षक हैं, तो मुझे इस अंधकार से बाहर निकालें। मैंने जीवनभर पाप किए हैं, परंतु अब मैं क्षमा मांगता हूँ।”
रातभर वह जागता रहा। सुबह होते-होते उसकी चेतना लगभग समाप्त हो गई थी। दोपहर में उसे थोड़ी सी चेतना लौटी। वह लंगड़ाते हुए जंगल के अंदर गया और वृक्षों से कुछ फल तोड़े। सूर्यास्त होने तक उसने ये फल पीपल वृक्ष की जड़ों में अर्पित करते हुए कहा, “हे लक्ष्मीपति भगवान विष्णु! मैं इन फलों को आपको अर्पित करता हूँ। कृपया इन्हें स्वीकार करें।”
उस रात उसने पुनः नींद नहीं ली और जागता रहा। उसकी इस अनजानी तपस्या से भगवान विष्णु प्रसन्न हुए। तभी आकाशवाणी हुई, “हे राजकुमार लुंक! तुमने अनजाने में ही सही, परंतु सफ़ला एकादशी का व्रत कर लिया है। तुम्हारे सारे पाप धुल गए हैं। तुम्हें राज्य, सम्मान और संतान की प्राप्ति होगी। जाओ, अपने पिता के पास लौटो और एक नए जीवन की शुरुआत करो।”
लुंक की आँखों से आँसू बह निकले। उसका हृदय पूरी तरह से बदल चुका था। वह तुरंत चंपावती नगरी लौट आया। महल पहुँचकर उसने राजा महिष्म के चरणों में गिरकर कहा, “पिताजी, मैंने जीवनभर पाप किए हैं। कृपया मुझे क्षमा करें।”
राजा महिष्म ने अपने पुत्र को गले लगा लिया और कहा, “बेटा, सफ़ला एकादशी का पुण्य तुम्हारे जीवन में प्रकाश बनकर आया है। अब तुम धर्म के मार्ग पर चलो।”
कुछ समय बाद राजा महिष्म ने लुंक को राज्य सौंप दिया। लुंक ने धर्म और न्याय के साथ राज्य का संचालन किया। उसका एक पुत्र हुआ, जिसका नाम मनोज्ञ रखा गया। लुंक ने राज्य को समृद्ध बनाया और जब उसका पुत्र बड़ा हुआ, तो उसने राज्य का भार अपने पुत्र को सौंपकर स्वयं भगवान विष्णु की भक्ति में लीन हो गया।
शिक्षा: सफ़ला एकादशी का व्रत आत्मशुद्धि और भक्ति का मार्ग है। यह कथा हमें सिखाती है कि सच्चे हृदय से किया गया पश्चाताप और भगवान का स्मरण किसी के भी जीवन को बदल सकता है।