संतोषी माता की व्रत कथा एक प्रसिद्ध धार्मिक कथा है, जो विशेषकर उत्तर भारत में प्रचलित है। यह कथा एक वृद्धा और उसके सात पुत्रों की कहानी है, जिसमें सबसे छोटे पुत्र को उसकी मां द्वारा अन्यायपूर्ण व्यवहार का सामना करना पड़ता है। वह परदेश जाकर कड़ी मेहनत से सफलता प्राप्त करता है, जबकि उसकी पत्नी घर पर संतोषी माता का व्रत रखती है, जिससे उनके जीवन में सुख-समृद्धि लौटती है।
बहुत समय पहले, एक गाँव में एक वृद्धा रहती थी जिसके सात बेटे थे। उनमें से छह बेटे मेहनती और कमाने वाले थे, लेकिन सबसे छोटा बेटा आलसी और निकम्मा था। माँ अपने छह बेटों को ताज़ा और स्वादिष्ट भोजन परोसती थी, जबकि छोटे बेटे को उनके झूठे भोजन के बचे हुए हिस्से दिए जाते थे।
छोटे बेटे की पत्नी ने एक दिन उससे कहा, “तुम्हारी माँ तुम्हें कितना प्रेम करती हैं, यह तुम्हें खुद देखना चाहिए।” बेटे को यकीन नहीं हुआ और उसने तय किया कि वह खुद इस बात का सच पता लगाएगा।
त्योहार के दिन, उसने सिर दर्द का बहाना बनाकर रसोई में जाकर छुपने का फैसला किया। उसने देखा कि माँ ने छह बेटों के लिए बढ़िया आसन बिछाए, सात प्रकार के स्वादिष्ट भोजन परोसे, और प्यार से उन्हें खाना खिलाया। जब वे खा चुके, तो माँ ने उनकी थालियों से बचे हुए टुकड़े उठाए और उनमें से एक लड्डू बनाया। फिर उन्होंने छोटे बेटे को बुलाया और कहा, “उठ बेटा, तेरे भाइयों ने भोजन कर लिया, अब तू भी खा ले।”
यह देखकर बेटे का दिल टूट गया। उसने माँ से कहा, “अब मैं यहाँ नहीं रह सकता। मैं परदेश जा रहा हूँ।” माँ ने कहा, “जाना ही है तो आज ही चले जाओ।”
रवानगी से पहले, बेटे ने अपनी पत्नी को एक अंगूठी दी और कहा, “यह मेरी निशानी रख लो।” पत्नी ने गोबर से सने हाथ की छाप उसकी पीठ पर लगाते हुए कहा, “यह मेरी ओर से तुम्हारी निशानी है।”
नगर में उसे एक साहूकार की दुकान दिखाई दी। उसने साहूकार से कहा, “सेठ जी, मुझे नौकरी पर रख लीजिए।” सेठ ने कहा, “काम देखकर ही तुम्हें तनख्वाह मिलेगी।”
युवक ने मेहनत, ईमानदारी और लगन से काम करना शुरू किया। कुछ ही समय में उसने दुकान का हिसाब-किताब, ग्राहकों की सेवा और सामान बेचने का जिम्मा संभाल लिया। साहूकार के बाकी नौकर उसकी मेहनत और ईमानदारी देखकर हैरान थे।
सेठ ने उसकी मेहनत को देखकर उसे व्यापार में साझेदार बना लिया। 12 साल बीत गए। युवक ने अपनी लगन और ईमानदारी से सफलता हासिल की और नगर का प्रतिष्ठित व्यापारी बन गया।
उधर, उसकी पत्नी पर सास-ससुर के अत्याचार बढ़ते गए। उसे जंगल से लकड़ी लाने भेजा जाता और खाने में भूसी की रोटी और नारियल के खोखे में पानी दिया जाता। एक दिन जंगल में, उसने कुछ महिलाओं को संतोषी माता का व्रत करते देखा। उसने उनसे पूछा, “यह व्रत कौन सा है, और इससे क्या लाभ होता है?”
महिलाओं ने बताया, “यह संतोषी माता का व्रत है। इससे दुख, दरिद्रता और परेशानियां दूर होती हैं। मन की इच्छाएं पूरी होती हैं, और घर में सुख-समृद्धि आती है।” उन्होंने उसे व्रत करने की विधि भी समझाई।
संतोषी माता के व्रत की विधि इस प्रकार है:
- व्रतकर्ता को प्रत्येक शुक्रवार को व्रत रखना चाहिए।
- व्रत के दिन सुबह स्नान करके संतोषी माता का पूजन करना चाहिए।
- माता को गुड़ और चने का प्रसाद अर्पित करना चाहिए।
- व्रत के दौरान खट्टा पदार्थ खाने से सख्त परहेज करना चाहिए।
- संतोषी माता की व्रत कथा सुनने के बाद ब्राह्मण या बच्चों को भोजन कराना चाहिए।
- व्रत समाप्ति के बाद उद्यापन (समापन समारोह) करना चाहिए। इसमें अढ़ाई सेर आटे का खाजा, खीर और चने का साग बनाना चाहिए।
- आठ बच्चों को भोजन कराकर दक्षिणा देनी चाहिए।
- उद्यापन के दिन भी घर में खटाई का प्रयोग बिल्कुल नहीं होना चाहिए।
पत्नी ने श्रद्धा और विश्वास के साथ संतोषी माता का व्रत शुरू कर दिया। कुछ ही शुक्रवार के बाद उसके पति का पत्र और धन आने लगे। यह देखकर सास और जेठानी जलने लगीं। पत्नी ने माता से प्रार्थना की, “मुझे धन नहीं चाहिए, मुझे अपने पति का साथ चाहिए।”
संतोषी माता ने युवक को स्वप्न में दर्शन दिए और कहा, “पुत्र, तेरी पत्नी तेरा इंतजार कर रही है। वह बहुत दुख सह रही है।”
युवक ने कहा, “माता, मेरे पास बहुत काम है। मैं यहाँ से कैसे जाऊँ? मेरे पास कोई रास्ता नहीं है।”
माता ने कहा, “सुबह घी का दीपक जलाकर मेरी पूजा करो और दुकान पर बैठो। तुम्हारे सारे काम पूरे हो जाएँगे और सारा लेन-देन भी शाम तक निपट जाएगा।”
युवक ने वैसा ही किया। सुबह नहा-धोकर घी का दीपक जलाया, माता की पूजा की और दुकान पर बैठ गया। शाम तक उसके सारे काम पूरे हो गए और सारा लेन-देन भी निपट गया।
पत्नी लकड़ी का गट्ठर लेकर घर लौटी। उसने आंगन में गट्ठर पटकते हुए कहा, “लो सासूजी, लकड़ी का गट्ठर, भूसी की रोटी और नारियल के खोखे में पानी दो।” तभी उसका पति वहां पहुंचा और उसने अपनी पत्नी को पहचान लिया। उसने माँ से कहा, “अब मैं अलग घर में रहूंगा।”
दोनों ने अलग घर बसाया, जो राजमहल जैसा सुंदर बन गया। कुछ समय बाद पत्नी ने संतोषी माता का उद्यापन करने की इच्छा जताई।
वह सुख-शांति से अपना जीवन व्यतीत करने लगी। हर तरफ खुशहाली और संतोष का वातावरण था। कुछ समय बाद, एक शुक्रवार को उसने अपने पति से कहा, “मुझे संतोषी माता का उद्यापन करना है।” पति ने प्रेमपूर्वक कहा, “बहुत अच्छा, खुशी से करो।”
वह उद्यापन की तैयारी में जुट गई। उसने भोजन बनाने के लिए पूरे मन से सामग्री जुटाई। घर में खीर, पूरी, चने का साग और अढ़ाई सेर आटे का खाजा बनाया गया। उसने अपनी जेठानी के बेटों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। बच्चों ने खुशी-खुशी आने की बात मान ली, लेकिन उनकी माँ, जेठानी, जो अब भी बहू से ईर्ष्या रखती थी, उसने अपने बेटों को समझाया, “जब भोजन करने बैठो, तो खटाई मांगना ताकि उसका उद्यापन सफल न हो पाए।”
शुक्रवार का दिन आया। सब बच्चे भोजन के लिए बैठे। बहू ने बड़े प्रेम और श्रद्धा से उन्हें खीर, पूरी और चने का साग परोसा। बच्चों ने पेट भरकर खाया, लेकिन फिर उन्हें जेठानी की सीख याद आई। उन्होंने अचानक कहना शुरू किया, “हमें खीर-पूरी नहीं चाहिए, हमें खटाई चाहिए।” भोली बहू ने सोचा कि शायद बच्चे कुछ और खाना चाहते हैं। उन्होंने कहा, “यह व्रत का भोजन है, इसमें खटाई नहीं होती। अगर खाना है तो खाओ, वरना मत खाओ।”
बच्चों ने पैसे मांगे। भोली बहू, जो नियम-कायदों से अनजान थी, उसने उन्हें पैसे दे दिए। बच्चों ने उन पैसों से बाहर जाकर इमली खरीदी और खाई। जैसे ही उन्होंने खटाई खाई, संतोषी माता का व्रत भंग हो गया।
इस घटना के तुरंत बाद, राजा के दूत आए और उसके पति को पकड़कर ले गए। बहू को कुछ समझ नहीं आया कि यह सब क्यों हो रहा है। उसकी दुनिया जैसे उजड़ गई। वह रोती-बिलखती संतोषी माता के मंदिर पहुँची और रोते हुए कहने लगी, “हे माता, मैंने आपका व्रत किया, आपकी पूजा-अर्चना की, फिर मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ? आपने मुझे सुख देकर फिर से दुख क्यों दे दिया? आपने मेरा सुहाग क्यों छीन लिया?”
संतोषी माता ने दर्शन देते हुए कहा, “पुत्री, तुमने मेरा व्रत भंग किया है। बच्चों को खटाई खाने दी, जो कि व्रत के नियमों के विरुद्ध था।” बहू ने अपनी गलती स्वीकार की और माता से माफी माँगते हुए कहा, “माता, मुझे क्षमा करो। मुझसे अनजाने में भूल हुई है। मैं वादा करती हूँ कि आगे से कोई गलती नहीं करूँगी। कृपया मेरे पति को मुझसे वापस मिलवा दो।”
संतोषी माता ने कहा, “जा पुत्री, तेरा पति तुझे रास्ते में आता हुआ मिलेगा।”
बहू मंदिर से निकली और रास्ते में उसे उसका पति आता हुआ दिखाई दिया। वह प्रसन्न होकर पति से लिपट गई और रोते हुए कहा, “तुम कहाँ चले गए थे? मैं तुम्हारे बिना अधूरी थी।” पति ने कहा, “राजा ने मुझसे कर माँगा था, जिसे मैं चुकाने गया था। अब सब कुछ ठीक हो गया है।”
कुछ समय बाद, एक और शुक्रवार आया। बहू ने फिर से उद्यापन की तैयारी की। उसने खीर, पूरी, चने का साग और खाजा बनाया और बच्चों को भोजन के लिए बुलाया। लेकिन इस बार जेठानी ने फिर से बच्चों को सिखा दिया, “खाने के बाद खटाई मांगना।”
बच्चे भोजन करने बैठे, लेकिन इस बार बहू सतर्क थी। उन्होंने जैसे ही खटाई माँगी, बहू ने दृढ़ता से कहा, “इस भोजन में खटाई नहीं दी जाएगी। अगर खाना है तो प्रेम से खाओ, वरना छोड़ दो।”
बच्चे उठकर चले गए। बहू ने फिर ब्राह्मण के बच्चों को बुलाया और उन्हें भोजन कराया। बच्चों को दक्षिणा के रूप में एक-एक फल दिया। संतोषी माता इस बार बहुत प्रसन्न हुईं और बहू को आशीर्वाद दिया।
कुछ महीनों बाद, बहू को चंद्रमा के समान सुंदर पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। बहू का जीवन अब खुशियों से भर गया। वह हर शुक्रवार को मंदिर जाती और माता का व्रत करती।
एक दिन संतोषी माता ने सोचा, “यह बहू इतनी श्रद्धा से मेरा व्रत करती है, क्यों न मैं स्वयं इसके घर जाऊँ।” माता ने अपना रूप बदल लिया। उनके चेहरे पर गुड़ और चना सना हुआ था, होठों पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। जैसे ही उन्होंने घर में प्रवेश किया, सास ने उन्हें चुड़ैल समझ लिया और चिल्लाने लगी, “अरे, कोई इसे भगाओ, वरना यह हमें खा जाएगी!”
बहू ने रोशनदान से देखा और पहचान लिया। वह खुशी से झूम उठी और बोली, “यह मेरी संतोषी माता हैं!” उसने माता के चरणों में सिर झुकाया और अपने बच्चे को गोद से उतार दिया।
माता का प्रताप ऐसा था कि घर में चारों ओर आनंद फैल गया। सबने माता से क्षमा मांगी। माता ने पूरे परिवार को आशीर्वाद दिया और कहा, “जो श्रद्धा और विश्वास के साथ मेरा व्रत करेगा, उसकी हर मनोकामना पूरी होगी।
शिक्षा: संतोषी माता की सम्पूर्ण कथा से हमें यह सीख मिलती है कि सच्ची श्रद्धा, विश्वास और भक्ति से किए गए व्रत कभी निष्फल नहीं होते। कठिनाइयों के बावजूद अगर हम अपने इरादों पर दृढ़ रहते हैं और माता का सच्चे मन से स्मरण करते हैं, तो जीवन में सुख-शांति और समृद्धि अवश्य आती है।