एक बार धरती पर राक्षसों का अत्याचार बहुत बढ़ गया था। वे मनुष्यों और देवताओं पर अत्याचार करने लगे। देवराज इंद्र सहित सभी देवता कैलाश पर्वत पर शिवजी के पास गए और उनसे राक्षसों का संहार करने की प्रार्थना की। शिवजी ने त्रिशूल उठाया और राक्षसों का संहार करने चले गए।
शिवजी की अनुपस्थिति में पार्वती जी अकेली थीं। स्नान के लिए जाते समय उन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए अपने शरीर की मैल से एक पुतला बनाया और मंत्रों से उसमें प्राण डाल दिए। वह बालक गणेश बना। पार्वती जी ने गणेश से कहा, “मैं स्नान के लिए जा रही हूँ, तुम द्वार पर पहरा दो और किसी को अंदर मत आने देना।” गणेश ने आज्ञा मानकर स्नानगृह के द्वार पर भाले के साथ पहरा शुरू कर दिया।
जब शिवजी राक्षसों का संहार कर लौटे, तो वे पार्वती जी को यह समाचार देने स्नानगृह में प्रवेश करने लगे। गणेश ने उन्हें रोकते हुए कहा, “माता की आज्ञा है, कोई अंदर नहीं जा सकता।” शिवजी क्रोधित हो गए और गणेश को दंड देने की बात कही। दोनों में युद्ध शुरू हो गया। शिवजी महादेव थे, और गणेश को पार्वती जी की शक्ति प्राप्त थी, इसलिए युद्ध लंबा चला।
ब्रह्मा और विष्णु सहित सभी देवता युद्ध रोकने आए। गणेश ने कहा, “मुझे क्षमा नहीं, इन्हें क्षमा मांगनी चाहिए जो माता की आज्ञा का पालन नहीं कर रहे।” इससे शिवजी और क्रोधित हो गए। अंततः, शिवजी के त्रिशूल से गणेश का सिर कट गया और वह मंगल लोक में जा गिरा।
पार्वती जी ने गणेश का मृत शरीर देखकर विलाप किया और शिवजी से उन्हें जीवित करने को कहा। शिवजी ने बताया कि उनका सिर वापस नहीं जोड़ा जा सकता। पार्वती जी क्रोधित होकर संसार को भस्म करने की धमकी देने लगीं। तब ब्रह्मा जी ने सुझाव दिया कि किसी अन्य बालक का सिर गणेश से जोड़ा जा सकता है, जिसे शिवजी के त्रिशूल ने न काटा हो।
शिवजी ने गंभीर स्वर में अपने गणों को बुलाया और उन्हें एक विशेष कार्य सौंपा। उन्होंने कहा, “उत्तर दिशा में जाओ और ऐसा सिर लेकर आओ, जिसका मुख उत्तर की ओर हो और उसकी माँ उसकी ओर पीठ करके गहरी निद्रा में सो रही हो। यह सिर किसी भी प्राणी का हो सकता है, लेकिन मेरे त्रिशूल से कटा हुआ नहीं होना चाहिए।” गणों ने शिवजी की आज्ञा को सिर झुकाकर स्वीकार किया और तुरंत उत्तर दिशा की ओर प्रस्थान कर दिया।
गणों ने उत्तर दिशा में लंबी यात्रा की। वे जंगलों, पहाड़ों और नदियों को पार करते हुए आगे बढ़े। कई प्राणियों को देखा, लेकिन ब्रह्मा जी द्वारा बताए गए नियमों के अनुसार कोई सही प्राणी नहीं मिला। कई घंटों की खोज के बाद, सूर्यास्त के समय, उन्हें एक घने जंगल में एक हाथी का बच्चा दिखाई दिया। यह छोटा सा हाथी का बच्चा अपनी माँ के पास खड़ा था। उसका मुख उत्तर दिशा की ओर था, और उसकी माँ, एक विशाल हथिनी, उसकी ओर पीठ करके गहरी नींद में सो रही थी। हथिनी की साँसें इतनी गहरी थीं कि आसपास की पत्तियाँ हल्के से हिल रही थीं। गणों ने देखा कि यह स्थिति बिल्कुल ब्रह्मा जी के निर्देशों के अनुरूप है।
गणों ने सावधानी से उस हाथी के बच्चे को देखा। उसका सिर सुंदर और मजबूत था, और उसकी छोटी सूँड़ हल्के से हिल रही थी। गणों ने आपस में विचार-विमर्श किया और निश्चय किया कि यही सिर गणेश के धड़ के लिए उपयुक्त होगा। उन्होंने तुरंत अपने दिव्य शस्त्रों का उपयोग कर उस हाथी के बच्चे का सिर अलग किया, सावधानी बरतते हुए कि उसकी माँ न जाग जाए। सिर को लेकर वे तेजी से कैलाश पर्वत की ओर लौट आए।
कैलाश पर्वत पर पहुँचकर गणों ने वह सिर शिवजी को सौंप दिया। शिवजी ने उस सिर को ध्यान से देखा—यह एक सुंदर, शक्तिशाली और बुद्धिमान प्राणी का सिर था। उन्होंने अपने त्रिशूल की शक्ति और मंत्रों का उच्चारण करते हुए उस हाथी के सिर को गणेश के धड़ से जोड़ दिया। जैसे ही सिर धड़ से जुड़ा, एक दिव्य प्रकाश चारों ओर फैल गया। गणेश की आँखें खुलीं, और उन्होंने पहली साँस ली। उनके शरीर में फिर से प्राणों का संचार हो गया। गणेश जीवित हो उठे, लेकिन अब उनका सिर एक हाथी का था—बड़ा, शक्तिशाली और बुद्धि का प्रतीक।
पार्वती जी ने जब गणेश को जीवित देखा, तो उनकी आँखें खुशी से भर आईं। लेकिन हाथी का सिर देखकर उनके मन में मिश्रित भावनाएँ उमड़ पड़ीं। फिर भी, शिवजी ने गणेश को आशीर्वाद देते हुए कहा, “यह सिर बुद्धि, शक्ति और समृद्धि का प्रतीक है। गणेश अब संसार में अद्वितीय होंगे।” इस तरह गणेश का पुनर्जनम हुआ, और वे एक नए रूप में संसार के सामने आए।
नैतिक शिक्षा: कर्तव्य पालन सबसे बड़ा धर्म है। गणेश ने माता की आज्ञा का पालन करने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा दी, जिससे हमें यह सीख मिलती है कि अपने कर्तव्यों का निर्वहन पूरी निष्ठा से करना चाहिए, चाहे कितनी भी विपत्ति क्यों न आए। साथ ही, क्रोध पर नियंत्रण और समझदारी से समस्याओं का समाधान करना भी महत्वपूर्ण है।